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देवता: अग्निः ऋषि: वसिष्ठः छन्द: त्रिष्टुप् स्वर: धैवतः

तमिद्दो॒षा तमु॒षसि॒ यवि॑ष्ठम॒ग्निमत्यं॒ न म॑र्जयन्त॒ नरः॑। नि॒शिशा॑ना॒ अति॑थिमस्य॒ योनौ॑ दी॒दाय॑ शो॒चिराहु॑तस्य॒ वृष्णः॑ ॥५॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

tam id doṣā tam uṣasi yaviṣṭham agnim atyaṁ na marjayanta naraḥ | niśiśānā atithim asya yonau dīdāya śocir āhutasya vṛṣṇaḥ ||

पद पाठ

तम्। इत्। दो॒षा। तम्। उ॒षसि॑। यवि॑ष्ठम्। अ॒ग्निम्। अत्य॑म्। न। म॒र्ज॒य॒न्त॒। नरः॑। नि॒ऽशिशा॑नाः। अति॑थिम्। अ॒स्य॒। योनौ॑। दी॒दाय॑। शो॒चिः। आऽहु॑तस्य। वृष्णः॑ ॥५॥

ऋग्वेद » मण्डल:7» सूक्त:3» मन्त्र:5 | अष्टक:5» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:5 | मण्डल:7» अनुवाक:1» मन्त्र:5


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह विद्युत् कैसे उत्पन्न करनी चाहिये और वह क्या करती है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (नरः) नायक मनुष्यो ! जो (निशिशानाः) निरन्तर तीक्ष्णता पूर्वक कार्य करते हुए आप (तम्) उस विद्युत् अग्नि को (दोषा) रात्रि में (तम्) उसको (उषसि) दिन में (अत्यम्) घ़ोडे को (न) जैसे, वैसे (यविष्ठम्) अत्यन्त जवान के तुल्य (अग्निम्) विद्युत् अग्नि को (मर्जयन्त) घर्षण आदि से शुद्ध करो (अस्य) इस (आहुतस्य) अभीष्ट सिद्धि के लिये संग्रह किये (वृष्णः) वर्षा के हेतु अग्नि के (योनौ) कारण में (अतिथिम्) अतिथि के तुल्य सेवने योग्य (शोचिः) दीप्तियुक्त विद्युत् को (दीदाय) प्रकाशित (इत्) ही कीजिये ॥५॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जो तीव्र घर्षणादिकों से दिन-रात विद्युत् अग्नि को प्रकट करते हैं, वे जैसे घोड़े से, वैसे शीघ्र स्थानान्तर के जाने को समर्थ होते हैं ॥५॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्सा विद्युत्कथमुत्पादनीया सा च किं करोतीत्याह ॥

अन्वय:

हे नरो ! ये निशिशानास्सन्तो भवन्तस्तं दोषा तमुषस्यत्यन्न यविष्ठमग्निं मर्जयन्तोऽस्याहुतस्य वृष्णोऽग्नेर्योनावतिथिमिव शोचिर्दीदायेत् ॥५॥

पदार्थान्वयभाषाः - (तम्) विद्युदग्निम् (इत्) एव (दोषा) रात्रौ (तम्) (उषसि) प्रभाते (यविष्ठम्) अतिशयेन युवानमिव (अग्निम्) विद्युतम् (अत्यम्) वेगवन्तं वाजिनम् (न) इव (मर्जयन्त) घर्षणादिना शोधयन्तु (नरः) (निशिशानाः) तीक्ष्णीकर्त्तारः (अतिथिम्) अतिथिमिव सेवनीयम् (अस्य) अग्नेः (योनौ) (दीदाय) प्रकाशय (शोचिः) दीप्तिमन्तम् (आहुतस्य) सर्वतः कृतप्रियस्य (वृष्णः) वर्षकस्य ॥५॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः । ये तीव्रैर्घर्षणादिभिरहर्निशं विद्युतमग्निं प्रकटयन्ति तेऽश्वेनेव सद्यः स्थानान्तरं गन्तुं शक्नुवन्ति ॥५॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे तीव्र घर्षणाने रात्रंदिवस विद्युत अग्नी प्रकट करतात ते घोड्याप्रमाणे शीघ्र स्थानांतर करण्यास समर्थ असतात. ॥ ५ ॥